जिस्म के दरवाजे से जैसे जैसे उम्र अंदर आ रही है
वैसे वैसे ख़ुदको खोता जा रहा हूँ
मैं खो तो रहा हूँ खुद को लेक़िन
मुझे खुद में मेरे पिता मिल रहे हैं,
चलने से लेकर बात करने के तरीके तक
आदतों से लेके ढंग तक
कभी गुस्से में मैं अपनी ही जीभ दबा देता;
हाँ वो अब भी दबाते हैं ;
खर्राटों के ढंग तक मुझमे आचुके हैं
यक़ीनन मैं अब मैं नही रह चुका हूं;
क्या सच में?
या सिर्फ ये एक उन जैसे बन ने की चाह है?
यह खुद से पूछकर अपनी कमियां गिन ने लगता
और अपने आपको बराबरी की गलती का अपराधी पाता;
हाँ ये सच है, मेरी ये बस एक चाह है जो अब कहीं-न- कहीं कैसे-न-कैसे मुझमे झलक पड़ती है,
मैं उन जैसा कभी नही हो सकता ,
ये सोचके ख़ुद को लाचार पाता
एक बेबसी, एक बोझ में
बोझ अपने पिता जैसा बन पाना।।।
~ Avdhesh Kuriyal
वैसे वैसे ख़ुदको खोता जा रहा हूँ
मैं खो तो रहा हूँ खुद को लेक़िन
मुझे खुद में मेरे पिता मिल रहे हैं,
चलने से लेकर बात करने के तरीके तक
आदतों से लेके ढंग तक
कभी गुस्से में मैं अपनी ही जीभ दबा देता;
हाँ वो अब भी दबाते हैं ;
खर्राटों के ढंग तक मुझमे आचुके हैं
यक़ीनन मैं अब मैं नही रह चुका हूं;
क्या सच में?
या सिर्फ ये एक उन जैसे बन ने की चाह है?
यह खुद से पूछकर अपनी कमियां गिन ने लगता
और अपने आपको बराबरी की गलती का अपराधी पाता;
हाँ ये सच है, मेरी ये बस एक चाह है जो अब कहीं-न- कहीं कैसे-न-कैसे मुझमे झलक पड़ती है,
मैं उन जैसा कभी नही हो सकता ,
ये सोचके ख़ुद को लाचार पाता
एक बेबसी, एक बोझ में
बोझ अपने पिता जैसा बन पाना।।।
~ Avdhesh Kuriyal