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Saturday, October 14, 2017

हाँ तुम फिर थी कल....

छनती पहली किरण केशों से,
जैसे दे रही हो राहत गहरी नींद की थकन से ,
हाथों का स्पर्श माथे पर मरहम लगाता गहरे  दर्द का,
और वो चुम्बन माथे पर, सुबह को फीका ठहराता।
नजारा, जो जुठला रहा हो मृगतृष्णा मेरी,
एक देवी के होने की।
और फिर बटोरता सब कुछ मैं बाँहों में तुम्हारा,
जैसे समा गया हो ब्रह्माण्ड सारा।
हाँ यही देखा था कल फिर, तुम थी वहाँ,
यादों की गोध में मुझे सुलाती,
हाँ तुम ही थी, सोचकर भीगती पलकें फिर,
यादों का घाव उधेड़ कर।
दर्द का एहसास महसूस होता तुम्हारे न होने का.
 हाँ तुम थी फिर कल, आज या शायद कल भी वहीँ ?
                                                      -अवधेश कुड़ियाल

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