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Friday, January 31, 2014

चरित्र निर्माण

व्यक्तित्वा का विकाश चरित्र से होता है और चरित्र से ही मनुस्य की पहचान होती है. इसलिए चरित्र निर्माण सबके लिए महत्वपूर्ण है. प्रकृति का नियम है की एक मनुस्य की आकृति दूसरे से भिन्न होती है आकृति का यह जन्मजात भेद आकृति तक ही सिमित नहीं है उसके स्वभाव संस्कार और उसकी प्रकृतियों में भी वही असमानता रहती है. इस असमानता में ही श्रिस्ति का सौंदर्य है. प्रकृति हर पल अपने को नए रूप में सजती है हम इस प्रतिपल होने वाले परिवर्तन को उसी तरह नहीं देख सकते जिस तरह हम एक गुलाब के फूल में और दूसरे में कोई अंतर नहीं कर सकते. परिचित वस्तुओं में ही हम इस भेद की पहचान आसानी से कर सकते हैं. चरित्र शब्द मनुस्य के सम्पूर्ण व्यक्तित्वा को प्रकट करता है.'अपने को पहचानो' शब्द का वही अर्थ है जो अपने चरित्र को पहचाने और अपने को पहचान न बहुत ही कठिन नहीं है. आज हम दूसरे की निंदा बहुत ही सरलता से कर लेते हैं; पर अपने आपको पहचान ने में असमर्थ हैं. क्या ये हमारी प्रकृति है?या मनुस्य का स्वभाव ही ऐसा हो गया है? चरित्र निर्माण के लिए सबसे पहला कदम यही है की हमे अपनी सोच बदलनी है हम अब यह सोच बैठे हैं की हम इस पृथ्वी पर आखिरी पीढ़ी बची हैं; यह भूल चुके हैं की जो हम यंहा छोड़कर जायेंगे हमारी आने वाली पीढ़ी वही अपनाएगी. चरित्र निर्माण शिशु के जन्म लेने से बहुत वर्ष पहले से ही हो जाता है. एक बार एक वृद्ध अपने घर के आँगन में आम के पेड़ लागरे थे तो किसी ने उनसे पूछा श्रीमान क्या आप इस वृक्छ के फल खाने तक जीवित रहोगे? तो वृद्ध ने बड़ी सरलता से उत्तर दिया "क्या जो अपने बचपन से लेकर अब तक फल खाये हैं वो क्या वृक्ष मैंने लगाए थे?" अर्थात कहने का भाव यह है की जिस तरह हम अपने लगाए वृक्छों के फल दूसरों के लिए छोड़ जाते हैं इसी प्रकार हम अपने चरित्र की पहचान भी छोड़ जाते हैं और हम यह भी कह सकते हैं की इसी तरह मनुस्य का चरित्र निर्माण उसके जन्म लेने से १०० साल पहले से ही हो जाता है. आज हमारे सामने सबसे बड़ा सवाल यह है की हम क्या अपनी आने वाली पीढ़ी को यह समाज इसी हालात में विरासत में दें? क्या हमारा हक़ इसे बदलने का? मैं मानता हूँ मनुस्य दिन प्रति दिन स्वार्थी बनता जा रहा है पर अपनी नयी पीढ़ी का स्वार्थ मनुस्य के दिल में क्यों नहीं? वो भी तो हमारे अपने हैं.... मनुस्य का चरित्र निर्माण उसकी शिक्षा उसके घर और आस पास के वातावरण से होती है यह सब चीजें शिशु के जन्म लेते ही उसपर असर करने लगती है. हमे यह नहीं भूलना चाहिए की जो हमारे पूर्वज हमारे लिए छोड़ गए थे हमने वही अपनाया है और उसी तरह हम भी अपने आने वाली पीढ़ी के लिए छोड़ जायेंगे और यह क्रम पृथ्वी के नष्ट होने तक चलता रहेगा तो हम अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए एक साफ़ सुथरा समाज छोड़ जाने के बारे में क्यों नहीं सोचते ?

Sunday, January 26, 2014

कुछ पल यूँ लगा जैसे तुम हो.


कुछ पल यूँ लगा जैसे तुम हो..
कुछ पल यूँ लगा जैसे तुम हो..


ख्यालों में खोते खोते जाने कब आँख लगी,
तेरे हुस्न-ऐ-दीदार तमन्ना जाने कब आँख लगी.
तेरी बाँहों में खोया रहा रात भर.

 कुछ पल यूँ लगा जैसे तुम हो..
हर पल यूँ लगा जैसे तुम हो..


तुमने कहा था प्यार जुबान-ऐ-बयां नहीं होता
फिर तेरा नाम लेते ही क्यों बयां होता है?
मेरी हर बात में तुम हो जैसे,
 मेरी हर सांस में तुम हो..


क्या तुम्हे याद है पहली दफा जब हम मिले थे?
उस सुबह की चमक तुम्हारी आँखों में आज भी दिखती है,
मुझे तेरा घबराके गले लग जाना आज भी बहुत भाता है!

फिर तुम्हे क्यों लगता है यूँ अकेले छोड़ गए हम तुम्हे?
तेरी वफ़ा की कदर है हमे,
 शायद यही सोचके आज भी तेरी गली में जाते हैं अब भी!

कल रात को ख्याल आया की जैसे तुम हो..
हर पल यूँ लगा जैसे तुम हो..
तेरे छुवन का एहसास हुवा तो लगा जैसे तुम हो..
कुछ पल यूँ लगा जैसे तुम हो..!

Friday, January 24, 2014

ख्वाब..

कन्हा भुला हूँ तुम्हे? 
कन्हा भुला हूँ तुम्हे?


अक्सर तुम ये कहते थे,कि  

"जमीनी सफर मुकम्मल होते ही
तमाम रिश्ते धुंदले पड़ने लगते हैं"!

क्या अब भी तुम्हे ऐसा लगता है?
देखो तो आज भी कितनी बेसब्री से मैं तुम्हारा इंतज़ार करता हूँ;

तुम्हारे मुस्कराते चेहरे को जब तक ना देख लूँ 

चैन और करार कान्हा आता है मुझे?तुम्हे भी रिश्ते निभाने आते हैं ये जान चूका हूँ मैं,

खाब में सही हर रोज वक़्त निकालकर तुम आज भी रिश्ता निभाने आ ही जाते हो