....और मैं मौजूद वहाँ
जहाँ सूरज भी लाल था,
बादलों से झांकता मुझे।
तितलियाँ सवाँर रही थी सब,
हवा झूलाती फूलों को,
और ची ची की आवाजें,
जो खींचती मुझे तन्हाई से दूर।
मैं इक नशे में डूबा वहाँ
जहाँ बादलों का झुण्ड सफ़ेद था,
घर था किसी इक परी का,
रंग चुराती तितलियाँ फूलों से,
और बिखेरती हवा में;
हरे पेड़ बुला रहे थे,
चहक को अपनी ओर।
और मैं मौजूद रहा,
वहाँ जहाँ मैं आज भी हूँ,
यादों में तेरी,
महसूस होता भार इक काँधे पर,
सिसकती आवाज लेती नाम मेरा,
धड़कन बढाती;
जुल्फें घोलती मिठास,
इन फीके फूलों की सुंगंध में;
और धीरे से एक जकड़न भींचती मुझे,
शामिल करती तुझमे,
और मैं डूबा रहता,
नहीं डूबा हूँ आज भी नशे में तेरे,
मौजूद हूँ वहाँ।
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